क्या होता है थैलासीमिया?
- थैलासीमिया (Thalassemia) बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिक तौर पर मिलने वाला रक्त-रोग है। इस रोग के होने पर शरीर की हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिसके कारण रक्तक्षीणता के लक्षण प्रकट होते हैं। इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है। इसमें रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की भारी कमी होने लगती है जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है।
थैलेसेमिया के प्रकार
- हीमोग्लोबीन दो तरह के प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलीसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है। जिसके कारण लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होती है।रक्त की भारी कमी होने के कारण रोगी के शरीर में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की कमी से हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता है एवं बार-बार रक्त चढ़ाने के कारण रोगी के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय, यकृत और फेफड़ों में पहुँचकर प्राणघातक होता है। मुख्यतः यह रोग दो वर्गों में बांटा गया है:
- मेजर थैलेसेमिया: यह बीमारी उन बच्चों में होने की संभावना अधिक होती है, जिनके माता-पिता दोनों के जींस में थैलीसीमिया होता है। जिसे थैलीसीमिया मेजर कहा जाता है।
- माइनर थैलेसेमिया: थैलीसीमिया माइनर उन बच्चों को होता है, जिन्हें प्रभावित जीन माता-पिता दोनों में से किसी एक से प्राप्त होता है। जहां तक बीमारी की जांच की बात है तो सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रक्त जांच के समय लाल रक्त कणों की संख्या में कमी और उनके आकार में बदलाव की जांच से इस बीमारी को पकड़ा जा सकता है।
थैलेसेमिया के लक्षण
- सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना ब़ढ़ना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थेलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं।
बचाव एवं सावधानी
थैलेसेमिया पीडि़त के इलाज में काफी बाहरी रक्त चढ़ाने और दवाइयों की आवश्यकता होती है। इस कारण सभी इसका इलाज नहीं करवा पाते,जिससे 12 से 15 वर्ष की आयु में बच्चों की मृत्य हो जाती है। सही इलाज करने पर 25 वर्ष व इससे अधिक जीने की आशा होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, रक्त की जरूरत भी बढ़ती जाती है।
- विवाह से पहले महिला-पुरुष की रक्त की जाँच कराएँ।
- गर्भावस्था के दौरान इसकी जाँच कराएँ
- रोगी की हीमोग्लोबिन 11 या 12 बनाए रखने की कोशिश करें
- समय पर दवाइयाँ लें और इलाज पूरा लें।
भारत सरकार द्वारा उठाये गये कदम
- थैलेसीमिया के लिये स्टेम सेल से उपचार की भी संभावनाएं हैं। इसके अलावा इस रोग के रोगियों के मेरु रज्जु (बोन मैरो) ट्रांस्प्लांट हेतु अब भारत में भी बोनमैरो डोनर रजिस्ट्री खुल गई है।
- मैरो डोनर रजिस्ट्री इंडिया (एम.डी.आर.आई) में बोनमैरो दान करने वालों के बारे में सभी आवश्यक जानकारियां होगी जिससे देश के ही नहीं वरन विदेश से इलाज के लिए भारत आने वाले रोगियों का भी आसानी से उपचार हो सकेगा। यह केंद्र मुंबई में स्थापित किया जाएगा। ऐसे केंद्र वर्तमान में केवल अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशो में ही थे। ल्यूकेमिया और थैलीसीमिया के रोगी अब बोनमैरो या स्टेम सेल प्राप्त करने के लिए इस केंद्र से संपर्क कर मेरुरज्जु दान करने वालों के बारे में जानकारी के अलावा उनके रक्त तथा लार के नमूनों की जांच रिपोर्ट की जानकारी भी ले पाएंगे। जल्दी ही इसकी शाखाएं महानगरों में भी खुलने की योजना है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पांच लाख से कम सालाना पारिवारिक आय वाले बच्चों को बेहद महंगा बोन मैरो ट्रांसप्लांट( मेरु रज्जू ट्रांसप्लांट) उपलब्ध करवाने का फैसला किया है।
- शुरुआत में हर साल दस साल से कम उम्र के दो सौ बच्चों के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट की सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है। जिन परिवार की वार्षिक आय पांच लाख से कम होगी, उनको इसका फायदा मिल सकेगा।
- इन मरीजों की पहचान राज्य सरकार के साथ मिल कर की जाएगी। हर बच्चे के इलाज पर दस लाख रुपये लगेंगे। जिन शीर्ष अस्पतालों में इनका इलाज होगा, उसकी भी पहचान कर ली गई है।
- तीन साल तक इस परियोजना के लिए पूरा खर्च सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम कोल इंडिया लिमिटेड (सीआइएल) की ओर से उठाया जाएगा। कोल इंडिया अपने कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी (सीएसआर) फंड के तहत इस कार्यक्रम को सहयोग करेगा।
- विशेषज्ञों के मुताबिक दुनिया भर में सालाना लगभग एक लाख बच्चे इस बीमारी के साथ पैदा होते हैं। इनमें से दस फीसद बच्चे भारत में ही हैं। इनमें भी उत्तर भारत में इस समस्या का स्तर काफी अधिक है।
- माना जाता है कि भारत के थैलेसीमिया मरीजों में से महज पांच से दस फीसद को ही स्तरीय इलाज मिल पाता है। ऐसे में यह पहल गरीब बच्चों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक यह एक दुर्लभ जेनेटिक समस्या है। डब्ल्यूएचओ ने इससे निपटने के लिए सभी देशों से अपनी रणनीति बनाने की अपील भी की है।
- थैलेसीमिया के मरीजों को आम तौर पर हर दो से पांच हफ्ते के अंतराल पर नियमित रूप से ब्लड ट्रांसफ्यूजन करवाते रहना पड़ता है। इस प्रक्रिया में कई गड़बड़ियों की भी आशंका रहती है।
- जबकि बोन मैरो ट्रांसप्लांट इसका ऐसा स्थायी समाधान है, जिसके बाद मरीज सामान्य जीवन बिता सकता है। मगर यह बहुत महंगा होने की वजह से मरीजों को उपलब्ध नहीं हो पाता। साथ ही इसके लिए दानकर्ता का मिलान भी बहुत मुश्किल होता है।’
सर मेरे भाई का लडका थैलासीमिया बीमारी से पीड़ित है इसके इलाज के लिए कोई सलाह दें तो आपकी अति कृपा होगी प्लीज सर हम लोग बहुत गरीब हैं और बहुत पैसा लगा चुके हैं फिर भी उसको हर महीने खून चढ़ता है व्हाय थैलासीमिया थैलासीमिया मेजर कृपया आप हमारी मदद करें
Sar hmara Bache Ka he Thalassemia major uska Umar 10yers hogya uska hamra rilesan se blad mech nhi ho rhA ki Bon mero transplant krae koi opye ho to btiega sar