जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन
- आजादी से पूर्व भारत में अनेक रियासतें थीं. उन्हीं में से एक अलीराजपुर रियासत थी
- इस रियासत में झबुआ एक गाँव था. इसी गाँव में सीताराम तिवारी और जगरानी देवी एक गरीब दम्पत्ति रहता था
- इनके यहाँ ही 23 जुलाई, 1906 में एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. पुत्र का नाम चन्द्रशेखर रखा गया
- बालक चन्द्रशेखर बड़ा साहसी और निर्भीक था
- अलीराजपुर पिछड़ी रियासत थी अतः वहाँ शिक्षा का बहुत कम प्रचार हुआ था.
- चन्द्रशेखर संस्कृत पढ़ना चाहते थे. उन्होंने अपने मन की बात अपने माता-पिता को बताई कि वे काशी में जाकर संस्कृत पढ़ना चाहते हैं, परन्तु उनके माँ-बाप ने उन्हें स्वीकृति नहीं दी तो एक दिन वे चुपके से घर से निकलकर काशी पहुँच गए
साहसी घटना
- चन्द्रशेखर पढ़ाई छोड़कर मात्र 15 वर्ष की उम्र में महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गए.
- चन्द्रशेखर ने जब देखा कि अंग्रेज पुलिसकर्मी सत्याग्रहियों को डण्डों से पीट रहे हैं तो उन्होंने एक पत्थर उठाया और एक पुलिसकर्मी को घायल कर दिया.
- चन्द्रशेखर को पकड़ने के लिए एक पुलिस वाला उनके पीछे भागा, पर वे पकड़े नहीं गए, लेकिन चन्दन का टीका लगाने के कारण वे शीघ्र पहचान लिए गए.
- जब उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो वहाँ उन्होंने अपना नाम आजाद बताया, पिता का नाम पूछे जाने पर स्वतन्त्र तथा घर का पता पूछे जाने पर जेलखाना.
- इस प्रकार के उत्तर सुनकर उन्हें 15 बेंतों की सजा सुनाई गई. इसके बाद वे आजाद के नाम से प्रसिद्ध हुए.
- आजाद ने छोटी-सी उम्र में ही प्रतिज्ञा की कि “दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.“
क्रान्तिकारी गतिविधियां
- असहयोग आन्दोलन बन्द हो जाने पर आजाद के सामने प्रश्न उपस्थित हुआ कि वह अब क्या करें? क्योंकि उनके हृदय में स्वतंत्रता के लिए आग जल रही थी.
- संयोगवश उनकी भेंट एक क्रान्तिकारी से हो गई. तब आजाद क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गए.
- काशी में ही आजाद की भेंट रामप्रसाद ‘बिस्मिल‘ से हुई.
- आजाद सारे उत्तर प्रदेश में दल का जाल बिछा देना चाहते थे, अतः वह बड़ी तत्परता के साथ धन इकट्ठा करने में जुट गए.
- दल के क्रान्तिकारी सदस्यों को अस्त्र-शस्त्रों को उपलब्ध करवाने के लिए धन की आवश्यकता थी. इसके लिए आजाद ने एक बैंक लूटने का प्रयत्न किया.
- गाजीपुर के एक धनी महन्त का शिष्य बनकर उसके धन को हड़पने का भी प्रयास किया, परन्तु इन कार्यों में आजाद को सफलता प्राप्त नहीं हुई.
- आजाद ने काशी में एक क्रान्तिकारी पंचें को बाँटकर बहुत यश प्राप्त किया. यहाँ तक कि उनकी चतुराई के कारण वह पर्चा पुलिस के दफ्तर में भी पहुँच गया था.
- आजाद को गोली चलाने में महारथ हासिल थी. उनका निशाना कभी चूकता नहीं था.
- एक बार उनके क्रान्तिकारी साथियों ने आजाद से कहा-“आजाद भैया ! हम लोगों की इच्छा है, आज आपकी निशानेबाजी देखी जाए.“ आजाद ने कहा ठीक है, सामने जो पेड़ दिखाई दे रहा है, उसके पत्ते पर मैं गोली चलाऊँगा.
- अब सबका ध्यान उस पत्ते की ओर आकर्षित हो गया. आजाद ने एक के बाद एक गोली चलाते हुए पाँच गोलियाँ चलाईं, परन्तु यह क्या? पत्ता अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ, जब उनके साथियों ने पास में जाकर पत्ते को देखा तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही. पत्ते में पाँचों गोलियों ने अलग–अलग छेद कर दिए थे।
- आजाद को अपने दल के सदस्यों के खाने-पीने की हमेशा चिन्ता बनी रहती थी. उधर आजाद के माँ-बाप को भूखे मरने की नौबत आ रही थी
- आजाद को गणेश शंकर विद्यार्थी ने कुछ रुपए दिए ताकि आजाद अपने माता-पिता के खाने-पीने की व्यवस्था कर सकें, परन्तु आजाद ने उन रुपयों को क्रान्तिकारियों तथा पिस्तौल आदि खरीदने पर खर्च कर दिया.
- आजाद को माता-पिता से पहले देश पर मर-मिटने के लिए तैयार भारत माँ के पुत्रों की चिन्ता थी. |
- धन का अभाव दल में बना ही रहा. दल के नेता रामप्रसाद बिस्मिल की सलाहनुसार 9 अगस्त, 1925 को सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई गई, जो काकोरी काण्ड के नाम से जानी जाती है.
- काकोरी की ट्रेन डकैती सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी. अतः खबर मिलते ही पुलिस सक्रिय हो उठी. अनेक क्रान्तिकारी पकड़े गए.
- बिस्मिल और असफाकउल्ला खाँ को फाँसी की सजा सुना दी गई, परन्तु आजाद गिरफ्तार नहीं हुए.
- दल लगभग टूट चुका था. ऐसे समय में आजाद वीर सावरकर के पास सलाह लेने गए. सावरकर ने आजाद से दल को फिर से पुनर्गठित करने को कहा.
झांसी में क्रांतिकारी गतिविधियां
- आजाद झांसी लौटकर नए सिरे से दल के संगठन में जुट गए.
- झांसी में आजाद की भेंट भगत सिंह और राजगुरू से हुई. कुछ दिनों बाद बटुकेश्वर दत्त और दूसरे कई क्रान्तिकारियों से भी मुलाकात हुई तब हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी दल का गठन किया गया
लाला लाजपतराय का बदला
- साइमन कमीशन अक्टूबर 1928 को लाहौर पहुँचा, कमीशन के विरोध में सभाएं हुईं जुलूस बनाकर स्टेशन पर विरोध के लिए लाला लाजपत राय गए.
- अंग्रेज पुलिस ने लालाजी पर प्राणघातक आक्रमण किया. जिसके फलस्वरूप लालाजी की मृत्यु हो गई.
- भगत सिंह और राजगुरू भी इस जुलूस में थे. उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक वे पुलिस कप्तान सैण्ड्र्स की हत्या नहीं कर देंगे, चैन नहीं लेंगे,
- भगत सिंह और आजाद आदि क्रान्तिकारियों ने सैण्डर्स की हत्या करके खून का बदला खून से लिया.
- सैण्डर्स की हत्या के पश्चात् भगत सिंह आजाद को बन्दी बनाने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए, परन्तु अंग्रेज सरकार को सफलता नहीं मिली.
- भगत सिंह वेश बदलकर कलकसे चले गए. आजाद साधु के वेश में लाहौर से निकल गए. एक बार फिर भगत सिंह और आजाद दोनों क्रांतिकारी दल को संगठित करने में लग गए
पब्लिक सेफ्टी बिल
- 9 अप्रैल, 1929 ई. को असेम्बली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल‘ द्वारा ऐसा कानून बनाने की योजना थी, जिसके अनुसार भारतीय मजदूर हड़ताल नहीं कर सकते थे और न वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते थे.
- इस बिल का विरोध करने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त दिल्ली जा पहुँचे, आजाद भी इसमें शामिल होना चाहते थे, परन्तु दल के बहुमत सदस्यों ने इसका विरोध किया.
- भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त असेम्बली हाल की गैलरी में पहुँच गए. वहाँ उन्होंने अंग्रेजी शासक के दमनात्मक तरीकों का भण्डाफोड़ करने वाले पर्च फेंके तथा खाली बेन्चों पर बम्ब फेंके. उनका इरादा किसी को मारने का नहीं था,
- वे तो लोगों को शासन द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से अवगत करा देना चाहते थे.
- बम विस्फोट के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बन्दी बना लिए गए. चारों तरफ क्रान्तिकारियों की धर-पकड़ होने लगी, राजगुरु, सुखदेव और यशपाल आदि को गिरफ्तार कर लिया गया. आजाद की चारों ओर खोज होने लगी, परन्तु वे अब भी अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आ सके.
- भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और राजगुरू पर लाहौर में मुकदमा चला.
- आजाद इन क्रान्तिकारियों को जेल से छुड़ाने की योजनाएं बना रहे थे, परन्तु भगवती चरण बम विस्फोट के कारण स्वर्गवासी हो गए, जिस कारण से भगत सिंह आदि को छुड़ाने की आजाद की योजना सफल नहीं हो सकी.
- आखिरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को 23 मार्च, 1931 को सायंकाल सात बजे फाँसी दे दी गई.
- बटुकेश्वर दत्त को काले पानी की सजा हुई. इन सब घटनाओं से आजाद का मन अस्थिर हो गया था. क्रान्तिकारी दल टूट गया था, परन्तु आजाद अब भी आजाद पंक्षी के समान विचरण कर रहे थे.
बलिदान
- आजाद ने अपने दल का रुपया प्रयाग के एक धनी व्यक्ति के यहाँ रखा हुआ था.
- दल के लिए। धन की आवश्यकता पड़ने पर “आजाद ने इलाहाबाद जाकर उससे रुपए माँगे. ऐसे समय में ही उनके एक निकट के सहयोगी ने आजाद के विरुद्ध मुखबरी की जिसके कारण आजाद मुसीबत में फंस गए.
- मुखबिर ने नाट बाबर को यह सूचना दी कि आजाद अपने एक दोस्त के साथ इलाहाबाद के ‘एल्फ्रेड पार्क में मिलेंगे, नाट बाबर अपने दल-बल के साथ वहाँ पहुँच गया.
- आजाद यह भांप गए कि उनके साथ धोखा हुआ है. उन्होंने अपने साथी को पार्क के बाहर सुरक्षित निकाल दिया और फिर अकेले ही पुलिस का मुकाबला करने को तैयार हो गए.
- दोनों ओर से गोलियाँ चलने लगीं. आजाद ने पुलिस के अनेक सिपाहियों को धराशायी किया, जबकि आजाद को चार गोलियाँ लग चुकी थीं. पुलिस उन्हें जिन्दा पकड़ना चाहती थी, लेकिन आजाद ने प्रतिज्ञा की थी कि वे कभी भी पुलिस की पकड़ में नहीं आएंगे.
- जब आजाद के पास अन्तिम गोली बची तो उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करते हुए अन्तिम गोली अंग्रेजों पर न चलाकर खुद अपनी कनपटी में मार ली.
- यह दिन 27 फरवरी, 1931 को प्रातः साढ़े दस बजे का था
- अंग्रेजों के मन में यह दहशत ही थी कि आजाद के पास से गोली चलनी बन्द हो गईं तो उनमें से किसी में भी इतना साहस नहीं हुआ कि वे आजाद के पास चले जाएं. आजाद के मृत शरीर पर पहले एक गोली मार कर देखा गया कि वे जिन्दा हैं या मर गए.
- जिस वृक्ष के नीचे आजाद ने बलिदान दिया था, वह जनता के लिए एक तीर्थ बन गया था. चन्दन, रोली और चावलों से उस वृक्ष की पूजा की जाने लगी थी.
- विदेशी अत्याचारी अंग्रेजी सरकारी कर्मचारी इसको सहन नहीं कर पाए उन्होंने उस वृक्ष को जड़ से नष्ट कराकर, आजाद के बलिदान का चिन्ह-वृक्ष को ही काट डाला.
- परन्तु लोगों के मन की श्रद्धा को वे खत्म नहीं कर पाए, अल्फ्रेड पार्क को लोग “आजाद पार्क‘ के नाम से सम्बोधित करने लगे थे।
उपसंहार
- भारत माँ के स्वाभिमानी पुत्र, कुशल क्रान्तिकारी दल संगठनकर्ता, अचूक निशानेबाज, देशभक्तों के हृदय सम्राट, व्यक्तित्व के धनी, धुन के पक्के, करीब दस वर्षों तक अंग्रेजों के दाँत खट्टे करने वाले, प्रतिज्ञा के धनी, आजाद आज हमारे बीच में नहीं हैं, परन्तु वे अब भी हर भारतीय के तन, मन, प्राण, दिल में मौजूद हैं तथा हर स्वतन्त्रता प्रेमी के लिए प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे.